आसक्ति
आसक्ति अत्यधिक दुखदायी है ।यानी तृष्णा अपने आप में व्याकुलता है। तृष्णा माने जो अपने पास है, उससे तृप्ति नहीं और जो नहीं है, उसे पाने को व्याकुल है। साधना करते-करते स्वयम अनुभव होगा कि तृष्णा कैसे जगती है। शरीर में जो पीड़ाहो रही है , वह अपने आप में दुखदायी नहीं है , लेकिन उसे दूर करने की तृष्णा कई गुना दुखदायी होती है । आसक्ति और दुःख दोनों पर्यायवाची हैं। जहाँ आसक्ति है , वहां दुःख है , जितनी आसक्ति उतना दुःख , यह प्रकृति का अटूट नियम है। आसक्ति के चार प्रकार हैं, एक तृष्णा की आसक्ति है। तृष्णा की आसक्ति सदैव विद्यमान रहती है। वह फूटी बाल्टी के समान है ,जो कभी भरती नहीं है ;वह सदा रिक्त ही रहती है। दूसरी आसक्ती मैं और मेरे प्रति है। जानते ही नहीं कि मैं क्या हूँ और मेरा क्या है ?एक आसक्ती अपने दर्शन के प्रति और अपनी परम्परागत मान्यताओं के प्रति है। एक अन्य आसक्ती अपने कर्म-कांडों के प्रति होती है। हर संस्कार नया विज्ञानं यानि अगले क्षण की नई चेतना पैदा करता है। अविद्या से ही संस्कार बनते हैं , अविद्या का अर्थ है अविज्ञान ,अज्ञान, बेहोशी, विमूढ़ता। यह अविद्या ,यह बेहोशी ही दुःख का मूल कारण है। इस अविद्या को जढ़ से काटें। हर वेदना के साथ प्रज्ञा जागेगी ,प्रज्ञा का अर्थ है प्रत्यक्ष -ज्ञान। जब-जब वेदना जागे, तब-तब हर वेदना प्रज्ञा जगाये --अनित्य है , नश्वर है। देख तो सही इसे। राग पैदा मत कर। द्वेष पैदा मत कर। हर संवेदना के साथ जितनी देर प्रज्ञा जागती है, नये संस्कार नहीं बनते। इतना ही नहीं , पुराने संस्कार भी कटने लगते हैं। "मन के करम सुधार ले मन ही प्रमुख प्रधान । कायिक वाचिक करम तो, मन ही की सन्तान।। "....इति=+
लेबल: तृष्णा
0 टिप्पणियाँ:
एक टिप्पणी भेजें
सदस्यता लें टिप्पणियाँ भेजें [Atom]
<< मुख्यपृष्ठ